Saturday, March 13, 2010

आध्यात्मिक प्रगति मे खास बाधा

आध्यात्मिक जगत मे प्रगति के लिए मन के प्रति जागना बहुत महत्व पूर्ण है.अर्थात मन मे आने वाले भावों
को जाने और उन मे फँसे नहीं .ऐसा कर सकें तो बहुत अच्छा नहीं तो एक दोष तो ऐसा है की जिसके प्रति जागना
तो परम आवश्यक है वह है -- कपट
मनुष्य को काम ,क्रोध आदि से बचना तो चाहिए क्योंकि ये विकार हैं (परंतु दबाना नहीं चाहिए )
फिर भी ये जीवन को इतना नुकसान नहीं पहुँचा सकते क्योंकि ये प्राकृतिक आवेग हैं.
परंतु कपट प्राकृतिक आवेग नहीं हैं.
भगवान कहते हैं
मोहे कपट छल छिद्र न भावा !
निर्मल मन जन सो मोहि पावा !!
कपट किया जाता है रूप रेखा रच कर . कर्तापन बहुत सघनता पूर्वक मौजूद रहता है.
जहाँ कर्तापन है वहाँ कर्म बंधन है जहाँ कर्मबंधन है वहाँ फल भोगने मे परतन्त्रता है
पराधीन सपनेहू सुख नहीं - मानस
इसलिये मनुष्य को विवेक पूर्वक कपट से बचना ही चाहिए

Labels: ,

Wednesday, March 10, 2010

संत समाज स्तुति या निंदा

कुछ तथाकथित वेशधारी संतों के शक करने योग्य चरित्रों के कारण सारा मीडिया ,समाज का बहुत बड़ा वर्ग आज
संतों पर जी भरकर कीचड़ उछाल रहा है.उनकी टिप्पडीं ऐसी प्रतीत हो रही हैं जैसे समाज मे संतों के नाम पर
खूब ठगाई हो रही हो .आज जिसे देखो संत समाज की खिल्ली उड़ाने मे गौरव का अनुभव कर रहा है .
एक महाशय ने तो नवभारत पर अपने ब्लॉग मे अत्यंत ही भद्दा शीर्षक दिया 'ये संत हैं या सुअर ' संत नाम के
साथ ऐसा जोड़ते हुए शर्म का बिल्कुल न आना क्षमा करने के योग्य तो बिल्कुल नहीं है .
ये लोग हिंदु संस्कृति से वाकिफ ही नहीं हैं. ऐसी महान संस्कृति मे जन्म लेकर मै गौरव का अनुभव करता हूँ .
हिंदुओं की संतों के प्रति गहरी आस्था के कारण कुछ अधर्मिक लोगों द्वारा संतों जैसा वेश बनाकर उन्हे ठगना
यह कोई बहुत मुश्किल काम नहीं है
एसे धोकेबाज़ सदा से होते आए हैं .प्राचीन काल मे भी देखें तो रावण जैसे लोगों को भी सीता को ठगना
पड़ा तो उन्हे भी संतों का भेष धारण करना पड़ा था.लेकिन उससे हमारे समाज मे संतों का महत्व नहीं घटा.
हमारे संविधान मे नियम है की चाहे 100 अपराधी छूट जायें पर एक निर्दोष को सजा नहीं होनी चाहिए
इससे भी ऊपर मै कहना चाहता हूँ की 1000 ठगों के बावजूद संतों की खोज का प्रयास का बंद नहीं करना
चाहिए , इससे निराश नहीं होना चाहिए .क्योंकि सदगुरु की मुलाक़ात जो दे सकती है सारा संसार एक साथ मिल
कर भी नहीं दे सकता.
जो लोग आध्यात्मिक लोगों को फालतू समझते हैं उन्होने इस मार्ग पर पैर रख कर देखा ही नहीं है
एक बात और , जो लोग तथाकथित वेशधारी संतों के चक्कर मे आकर फंस जाते हैं को सिर्फ इसलिये क्योंकि
उन्हे अध्यात्म की जानकारी और प्यास नहीं है उन्हे सिर्फ अपनी अधूरी वासनाओं को पूरा करने की प्यास है.
मेरा अनुरोध है की आप नकारात्मक सोच को छोड़ें और सकारात्मक सोच को अपनाएं , इसी मे व्यक्तिगत और
सामाजिक विकास हो सकता है

Monday, March 8, 2010

भगवान कहाँ रहते हैं

नाहं वसामि वैकुंठे, योगिनां ह्रदय न वै lमद भक्ता यत्रा गायन्ति, तत्र तिष्टामी नारद!!
हे नारद ! मैं कभी वैकुण्ठ में भी नहीं रहता, योगियों के ह्रदय का भी उल्लंघनकर जाता हूँ परन्तु जहाँ मेरे प्रेमी भक्त मेरे गुणों का गान करते हैं, वहांमैं अवश्य रहता हूँ..
यह बात तो सही है की भगवान सर्वत्र व्याप्त हैं फिर भी अनुभव मे कहाँ आते हैं .
इस सूत्र मे भगवान ने तीन बातों का जिक्र किया है
1 .बैकुंठ -मैं बैकुंठ मे हो भी सकता हूँ और नहीं भी ! बैकुंठ का मतलब 2 बातों से होता है
पहला स्थान विशेष--बैकुंठ धाम
दूसरा अवस्था विशेष -वैकुंठ अर्थात जहाँ कुंठा न हो .
तो भगवान कहते हैं की स्थान और अवस्था मेरे अनुभव मे सहायक तो हो सकते हैं परंतु ये मेरे
अनुभव मे कारण नहीं हैं !
2 .योगी -- योगी कुछ कर के परमात्मा का अनुभव करना चाहते हैं.योग का तो मार्ग ही 8 पड़ावों की बात
करता है यम ,नियम आसन, प्राणायाम,प्रत्याहार ,ध्यान,धारणा ,समाधि .
योग कहता है की इतना करो फिर कहीं परमात्मा का अनुभव खिलेगा
योगियों के ह्रदय का भी उल्लंघन कर जाता हूँ इस सूत्र मे भगवान कहते हैं ये मेरे अनुभव मे सहायक तो हो सकते हैं पर
ये भी याद रखो की ये
साधन ते नहीं होइ
भगवान कुछ करने से मिलेगे ही ऐसा नहीं है
3 .प्रेमी भक्त -प्रेम कोई क्रिया नहीं है .प्रेम किया नहीं जा सकता प्रेम स्वयं प्रकट होता है
कोई नहीं कह सकता की मैंने प्रेम किया ,कहते की मुझे प्रेम हो गया .
प्रेमी समर्पण करता है प्रेमी को साध्य के सिवाय कोई नजर नहीं आता. प्रेमी को बस अपने साध्य की चर्चा मे
ही आनंद आता है
प्रेम मे अहंकार का विसर्जन होता है
इसलिये भगवान प्रेमी के अनुभव मे आते ही हैं.
हरी व्यापक सर्वत्र सामना
प्रेम ते प्रगट होवहि मैं जाना
हरी ॐ शांति, हरी ॐ आनंद, ॐ गुरु ॐ गुरु .........

Labels:

Sunday, March 7, 2010

ब्रह्मचर्य की क्या जरूरत है

जो लोग ब्रह्मचर्य को सिर्फ पुराना और किताबी मानकर अपने मन मुखी जीवन का आनंद उठाने की ललक मे रहते हैं
और अपने को वैज्ञानिक समझ वालों की श्रेणी मे समझते हैं, वे ब्रह्मचर्य की ऊर्जा के आनंद से रीते रह जाते हैं.
हमारे भीतर एक जीवनी ऊर्जा शक्ति होती है, वह जब बढती है तो हमारे निचले केंद्रों पर दबाब पैदा करती है,
तब ही काम ज़ोर मारता है वह शक्ति वीर्य को बाहर धकेलना चाहती है.
अगर उस समय आप बच गए तो वह ऊर्जा बढती जाती है.
उस ऊर्जा को आप महसूस कर पाओगे .आपका अंग अंग खिला रहता है.हर कार्य मे उत्साह भरा रहता है.
एक नया आत्म विश्वास आप महसूस कर पाओगे
जो लोग उस ऊर्जा को एकत्रित ही नहीं होने देते उनको उस ऊर्जा का कोई अनुभव ही नहीं बन पाता.
रति क्रिया के बाद का अनुभव इसीलिये निस्तेज बना देता है जो ऊर्जा के विसर्जन की खबर देता है
जिन लोगों ने इस ऊर्जा के महत्व को समझा वे महान हो गए.